Sunday 18 January 2009

सिंह इज़ किंग-सिद्धू इज़ बुद्धू

बॉलीवुड का किंग बॉक्स ऑफ़िस ही तय करता है। और उसी ने सिंह (अक्षय कुमार) को नया किंग बनाया। यानि किंग ख़ान की सालों की मेहनत और उनके तख़्त-ओ-ताज को एक सिंह ने ना सिर्फ़ चुनौती दी, बल्कि मीडिया की सुर्ख़ियों में भी छा गए और बॉक्स ऑफ़िस की खिड़कियों के ज़रिए करोड़ों रुपये खिलाड़ी कुमार के हिस्से आ गए। ख़ैर ये काम सिंह इज़ किंग के भरोसे ही हुआ और शायद इसके सिवा कोई नहीं कर सकता था। ऐसा कहना इसलिए लाज़िमी है, क्योंकि अगर अक्षय कुमार की फिल्मोग्राफी से सिंह इज़ किंग को हटा दें, तो शाहरुख़ ख़ान जैसे सुपरस्टार को चुनौती देने वाली कोई भी मिसाल नहीं है। और ये भी उतना ही सही है, कि सिंह अगर किंग है, तो सिद्धू (चांदनी चौक टू चाइना में अक्षय के कैरेक्टर का नाम सिद्धू है) सच में बुद्धू है या फिर उसने दर्शकों को बुद्धू बनाया है। चांदनी चौक टू चाइना देखकर ठीक यही एहसास होता है। एक लाइन में कहें तो फ़िल्म में कोई कहानी नहीं है और अगर है भी, तो वो सत्तर-अस्सी के दशक का फील देने वाली लगती है। लगता है सिप्पी साहब ने ना सिर्फ़ पैसा लगाया है, बल्कि अपना पुश्तैनी आइडिया भी लगा दिया है. फ़िल्म में दीपिका पादुकोण का डबल रोल और पिता के सामने आकर फिर पास से गुज़र जाना, दोनों बहनों का बचपन में चाइना में बिछड़ना, फिर बड़े होकर नाटकीय ढंग से चाइना में मिलना, अक्षय कुमार का चाइना पहुंचना, ये सब कुछ अपने आप में इतना कन्फ़्यूज़न पैदा करते हैं, कि चांदनी चौक के छोरे की कहानी चाइना के चाऊमीन की तरह उलझी हुई नज़र आती है।
फ़िल्म की शुरुआत सिंह इज़ किंग की बेतरतीब और बे-सिर-पैर की कॉपी लगती है। सिद्धू और हैप्पी (सिंह इज़ किंग में अक्षय के कैरेक्टर का नाम) में कोई फ़र्क नहीं नज़र आता। चांदनी चौक में सिद्धू से हैप्पी की बेवकूफ़ियां को रिपीट करवाया गया है। भोला-भाला लेकिन क़िस्मत का तेज़ हैप्पी (सिंह इज़ किंग में) जिस तरह विदेश पहुंचाया जाता है। सिद्धू को भी उसी तरह चाइना पहुंचाया जाता है, लेकिन इस बार कहानी का कोई सिर-पैर नहीं नज़र आता। ख़ैर मामला यहीं तक नहीं रुका, अक्षय की जिन बेवकूफ़ियों ने सिंह इज़ किंग में ऑडियंस का शिकार किया, चांदनी चौक में वो ख़ुद उनका शिकार होते देखे जा सकते हैं। हां, सिर्फ़ मैं ही नहीं, मेरे बगल वाली सीट पर दो संभ्रांत घर की भद्र महिलाएं भी बैठी थीं और उन्होंने भी कई बार सिद्धू की तारीफ़ में बहुत कुछ कहा, जिसे मैं लिख नहीं सकता, क्योंकि अंग्रेज़ी में उन्होंने जो कुछ भी कहा, वो अक्षय कुमार जैसे स्टार की शान में लाज़िमी गुस्ताख़ी जैसा महसूस हुआ। ख़ैर, गुस्ताख़ी का ये सिलसिला फ़िल्म की शुरुआत के पंद्रह मिनट बाद शुरू हुआ, और थिएटर से निकलने तक जारी रहा। दरअसल, इस फ़िल्म में अक्षय कुमार के हुनर का शोषण किया गया है। उनकी ह्यूमर वाली यूएसपी को बार-बार यू टर्न की तरह घुमाया गया और इसलिए फास्ट ट्रैक की रेस में फ़िल्म कई बार एक्सीडेंट करती नज़र आती है। स्टार के नज़रिए से तो दूर, अगर फ़िल्म अपने सुपर स्टार अक्षय के लिए भी देखने जाने की तमन्ना है, तो मत जाइएगा, क्योंकि, ख़ुद अक्षय को ये अच्छा नहीं लगेगा कि उन्हें किंग के बाद चांदनी चौक में एक रियल बुद्धू की तरह देखे। हम तो अपनी बात कह चुके, अब देखना है बॉक्स ऑफ़िस क्या कहता है। कहीं ऐसा ना हो, फ़िल्म में दीपिका का अक्षय पर कमेंट (कभी देखा है तूने आइना) को ऑडियंस भी फॉलो करने लगे।

6 comments:

  1. फ़िल्म वाकई बकवास है !

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  2. kafi achcha likha hai aapane.Your most welcome on my Blogs.
    http://rathore1rahul.blogspot.com
    http://natwarrathore.blogspot.com

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  3. बहुत अच्छा! सुंदर लेखन के साथ चिट्ठों की दुनिया में स्वागत है। चिट्ठाजगत से जुडऩे के बाद मैंने खुद को हमेशा खुद को जिज्ञासु पाया। चिट्ठा के उन दोस्तों से मिलने की तलब, जो अपने लेखन से रू-ब-रू होने का मौका दे रहे है का एहसास हुआ। आप भी इस विशाल सागर शब्दों के खूब गोते लगाएं। मिलते रहेंगे। शुभकामनाएं।

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  4. इस तरह की फिल्मों में
    दिमाग लगाना मना है !

    लिखते रहिये !
    मजा आया आपके पोस्ट में !

    अगले पोस्ट का इन्तजार रहेगा

    मेरी शुभकामनाएं

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  5. likhte rahen aapakaa swaagat hai

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