Sunday, 21 December 2008

`साहनी` की कहानी

फ़िल्म (ओवरऑल)--- साहनी (शाहरुख़) की कहानी और यशराज बैनर के चश्मो-चिराग़ की ज़ुबानी है, रब ने बना दी जोड़ी। सबसे ज़्यादा तारीफ़ का रुख़ बेशक़ शाहरुख़ के हिस्से में आई है, इसलिए नहीं क्योंकि वो किंग ख़ान हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि फ़िल्म में उनकी अदाकारी लाजवाब है। रब ने बना दी जोड़ी की कहानी आम आदमी की ज़िंदगी के उतनी ही क़रीब है, जितनी तान्या (अनुष्का शर्मा) राज (फ़िल्म में शाहरुख़ का दूसरा रूप) के क़रीब नज़र आती है। कहानी में जहां कहीं भी कमज़ोरी नज़र आती है, वहीं आदित्य चोपड़ा का हुनर (बेहतर डायरेक्शन) शाहरुख़ को खड़ा करके लोगों को फिर से जोड़ता नज़र आता है। यशराज बैनर की ये फ़िल्म साबित करती है, कि लोकेशन और स्टारकास्ट से ज़्यादा अहम और कामयाब है कहानी।
नज़रिया--- रब ने बना दी जोड़ी में एक नहीं कई फ़िल्में हैं। फ़िल्म शुरू होती है, एक आम हादसे से जो कभी-कभी ज़िंदगी में हो जाया करते हैं। बारात का इंतज़ार कर रहे लड़की वालों को बारातियों से भरी बस के एक्सीडेंट की ख़बर मिलना और उसके बाद शादी वाले घर में मातम। इसके बाद लड़की का एक ऐसे अनचाहे लड़के से शादी करना, जिसे सिर्फ़ पिता की मर्ज़ी के लिए तान्या (अनुष्का) सुरिंदर साहनी को पति बना लेती है। इसके बाद जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ते हुए कुछ कमज़ोर पड़ने लगती है, तो जैसा कि ऊपर बता चुका हूं, कि आदित्य चोपड़ा का कमाल नज़र आता है। साहनी (चश्मे वाले शाहरुख़) के पुराने स्कूटर को हटाकर धूम की रफ़्तार दी गई है। यानि बाइक पर रेस और धूम का फास्ट म्यूज़िक (बेवजह)। इसके बाद बीच में फ़िल्म जहां कमज़ोर महसूस होने लगी, तो शाहरुख़ की असली जोड़ी काम आई (काजोल के साथ डांस)। इसके अलावा इसी गाने में ओम शांति ओम का टाइटल सॉन्ग का सीन याद आता है। यहां भी बादशाह ख़ान के साथ फिर से ज़रा देर के लिए हीरोइन्स ने पर्दे पर मेहमाननवाज़ी की और थोड़ी देर के लिए जोड़ी बनाकर चले गए। (ओम शांति ओम में हीरोइन्स का शाहरुख़ के साथ डांस)। फ़र्क इतना था, कि यहां पर हीरोइन्स की तादाद कम थी। बहरहाल फ़िल्म जब एक बेमेल जोड़ी के ह्यूमर में कुछ उलझने लगती है, तो दर्शकों को इस उलझन से निकालता है। आदित्य चोपड़ा ने इस फ़िल्म में उसी शाहरुख़ को उसी अंदाज़ में पेश किया है, जैसे डीडीएलजे में पेश किया था (सूमो रेस्लर से लड़ते हुए सुरेंदर साहनी यानी शाहरुख़ के होठों से ख़ून बहना, आप देखेंगे तो ख़ुद ही समझ जाएंगे, डीडीएलजे के क्लाइमेक्स के वक़्त फाइट वाला सीन)। डीडीएलजे में राज के दिल में अपने प्यार को शादी की मंज़िल तक पहुंचाने की हसरत थी, तो रब ने बना दी जोड़ी वाले राज उर्फ़ साहनी उर्फ़ शाहरुख़ ने शादी के बाद बीवी का प्यार पाने की हसरत में आख़िरकार मुक़ाम पा ही लिया। यशराज बैनर ने टशन वाले अपने गाने को कैश कराने का चांस (गाना डांस पे चांस मार ले) भी नहीं गंवाया। लोकेशन, कॉस्ट्यूम और स्टारकास्ट के नाम पर ढेर सारा पैसा मंदी के दौर में बचा लिया गया, जिसकी बेहद ज़रूरत भी थी। कहा-सुना जा रहा है, कि फ़िल्म में सीधे-सादे पति शाहरुख़ यानि साहनी को छोड़कर बदले हुए शाहरुख़ यानी राज के साथ भागने का चंद लम्हों का फ़ैसला लोगों को हज़म नहीं हुआ। तो इसके लिए हाजमोला की नहीं थोड़ा प्रैक्टिकल होने की ज़रूरत है, जैसे कि तान्या यानी अनुष्का हो गई थीं। जज़्बाती हो जाना किसी के बस में नहीं। लेकिन अगले ही पल वो अपने पति में ही रब देखने का फ़ैसला करती है। कुल मिलाकर फ़िल्म ने अपनी टैग लाइन को बरक़रार रखा और एक आम प्रेम कहानी को अनूठे ढंग से पेश किया, और इसीलिए लोगों को फ़िल्म पसंद आ रही है। आदित्य की पारखी नज़रों ने ये साबित कर दिया कि, हीरोइन के कैरेक्टर में अनुष्का बिल्कुल फिट नज़र आईं और अनुष्का के काम की तारीफ़ भी लाज़िमी है, क्योंकि किंग ख़ान की शख़्सियत के सामने वो बिल्कुल नर्वस नहीं नज़र आईं, बल्कि पूरी फ़िल्म में शाहरुख़ ही अनुष्का के सामने नर्वस रहे (किरदार की डिमांड भी यही थी)।
हालांकि, इस फ़िल्म में शाहरुख़ ने, जितनी बेवकूफ़ियां की हैं, उतनी किसी भी फ़िल्म में नहीं की और उनका जो भोला-भाला लुक है, वो भी लोगों को उन पर हंसने का मौक़ा देता है। मगर, यही तो है अदाकारी और इसीलिए सबसे ज़्यादा नंबर शाहरुख़ के हुनर को और उतनी ही तारीफ़ आदित्य चोपड़ा की मेहनत की भी।
खरी-खरी---- रब ने बना दी जोड़ी को आदित्य चोपड़ा के दिल की भड़ास कहा जाए तो गलत नहीं होगा। फ़र्क इतना है, कि आदित्य (फ़िल्म में अनुष्का की तरह) चाहकर भी रानी को नहीं अपना पा रहे हैं और रानी हैं, कि (फ़िल्म में शाहरुख़ की तरह) अपने पार्टनर के आने का इंतज़ार कर रही हैं। बहरहाल, स्पेशल अपियरेंस वाले गाने में दो पल के लिए शाहरुख़ के साथ रानी को झूमने का मौक़ा देकर आदित्य ने अपने और रानी दोनों के दिल को तसल्ली ज़रूर दे दी है। इसके अलावा फ़िल्म में शाहरुख़ का एक डायलॉग (कभी लेडी से प्यार करने का गुडलक ही नहीं मिला), करन जौहर से उनके दोस्ताने को नहीं भूलने देता। पूरी फ़िल्म में किंग ख़ान ने तीन फ़िल्मी नामों को बार-बार मिस यूज़ किया। (कभी अलविदा न कहना, फिर मिलेंगे, चलते-चलते)। और सबसे बड़ी बात है, फ़िल्म का पंजाब से रिश्ता। हो सकता है, ऐसा ना हो, लेकिन अगर याद करें, तो किंग ख़ान की ओम शांति ओम के महीनों के कलेक्शन को सिंह इज़ किंग ने कुछ ही दिनों में पीछे छोड़ दिया था। अक्षय की उस फ़िल्म का रिश्ता भी पंजाब से था, जो देश से लेकर सात समंदर पार तक कामयाबी की असली वजह है। कहीं, ये फ़िल्म शाहरुख़ का पंजाबी स्टाइल में खिलाड़ी को जवाब तो नहीं। असलियत तो रब ही जाने, मैं चला...., पर कभी अलविदा न कहना, फिर मिलेंगे, लिखते-लिखते।

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